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दृष्टिकोण (विश्व महिला दिवस विशेषांक )

जो कहूँगा सच कहूँगा .
जो कहूँगा सच कहूँगा .
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भारत प्रारंभ से ही सभ्यता -संस्कृति वाला देश रहा हैं . हिन्दू सभ्यता में स्त्रियों को अत्यंत आदरपूर्ण स्थान प्रदान किया गया हैं . भारत की प्राचीनतम सभ्यता ,सैन्धव सभ्यता धर्म में माता देवी को सर्वोच्य पद प्रदान किया गया जो समाज में उन्नत स्त्री -दशा को दर्शाता हैं. ऋग्वैदिक काल में समाज ने उसे (स्त्री को ) आदरपूर्ण स्थान दिया . उसके सामाजिक और धार्मिक अधिकार पुरुष के बराबर ही थे .विवाह एक धार्मिक संस्कार मन जाता था .दम्पति घर के संयुक्त अधिकारी होते थे. कन्या को भी पुत्र समान शैक्षणिक अधिकार एवं सुविधाएँ प्राप्त थे . कन्याओं का भी उपनयन संस्कार होता था एवं वे भी ब्रह्मचर्य जीवन निर्वहन करती थी . ऋग्वेद में अनेक ऐसे स्त्रियों के नामों का उल्लेख मिलता हैं जो विदुषी जीवन एवं दार्शनिक थी और जिन्होंने कई मंत्रो एवं ऋचाओं की रचना भी की .ईश्वरों के नामों में भी देवियों का नाम ही पहले आता हैं जैसे राधे -श्याम ,सीता राम इत्यादि . ऋग्वेद में बृहस्पति तथा उनकी पत्नी जुहू की कथा मिलती हैं .बृहस्पति अपनी पत्नी को छोड़कर तपस्या करने गए किन्तु देवताओं ने उन्हें बताया कि पत्नी के बिना अकेले तप करना अनुचित हैं , जो यह दर्शाता हैं कि स्त्री भी पुरुष कि ही भांति तप करने की अधिकारिणी थी. लेकिन आज की नारीवादी स्त्रियाँ स्त्रियों की मुक्ति के लिए संघर्ष कर रही हैं .इसमें घर के भीतर स्त्री पर पुरुष के दबाव और अधिकार के विरुद्ध संघर्ष ,परिवार द्वारा उनके शोषण के विरुद्ध संघर्ष ,कार्य स्थान में उनकी गिरी हुई स्थिति , समाज ,संस्कृति और धर्म द्वारा दिए गए निचले दर्जे के विरुद्ध संघर्ष तथा बच्चा पैदा करने और पालने का संघर्ष भी शामिल हैं .

महिलाओं के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण
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1 . औरतों की उत्पादन और श्रम शक्ति पर मर्द का दोहरा नियंत्रण हैं ,क्यूंकि घर के भीतर या बाहर के श्रम की पारिश्रमिक पर पुरा हक़ उसी का होता हैं .
2 . औरत की यौनिकता पर भी पुरुष का ही नियंत्रण हैं,अर्थात पुरुषों की जरूरतों और इच्छाओं के अनुसार यौन सुख देना .
3 . औरत की गतिशीलता पर भी मर्दों का नियंत्रण हैं .औरतो के लिए पर्दा ,घरेलू क्षेत्र तक उनके दायरे की सीमा , स्त्रियों और पुरुषो के बीच कम से कम सम्पर्क आदि सभी बातें अपने ढंग से औरत की आजादी और गतिशीलता पर नियंत्रण करती हैं .
4 . संपत्ति तथा अन्य आर्थिक संशाधनों पर भी मर्दों का नियत्रण हैं .मसलन संपत्ति के अधिकार का पिता से पुत्र के हाथों में जाना .
5 . औरतों की प्रजनन शक्ति पर भी पुरुषों का ही नियंत्रण हैं ,मसलन बच्चों की संख्या ,गर्भ निरोधक का इस्तेमाल जैसे औरतों से सम्बन्ध रखने वाले बुनियादी मुद्दे पर पुरुष ही नियंत्रण रखता हैं .

वास्तव में समाज अपने स्वाभाव ,चरित्र और ढर्रे में पूर्ण रूप से पित्रसत्तात्मक हैं और इनमे परिवार जो सबसे छोटी इकाई हैं ,शायद सबसे अधिक पित्रसत्तात्मक हैं .परिवार के भीतर वही (पुरुष) औरत की यौनिकता ,मेहनत उत्पादन,प्रजनन और गतिशीलता पर नियंत्रण रखता हैं . यू तो परिवार का मुखिया परिवार के प्रत्येक सदस्य पर नियंत्रण रखता हैं लेकिन औरतों के मामले यह कुछ ज्यादा ही हैं .परिवार ही वह संस्था हैं जिसमे सबसे पहले ऊँच-नीच ,पदानुक्रम और लिंग आधारित भेदभाव की नीवं पड़ती हैं .लडको राव ज़माने की शिक्षा दी जाती हैं ,जबकि लड़कियों को रोब सहने की .यदि किसी प्रकार की घटना घटती हैं तो सारा दोष लड़की पर ही मढ़ा जाता हैं ,जो लड़कियों के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण को दर्शाता हैं .लड़की को हेय दृष्टि से देखा जाता हैं .उस पर तरह -तरह के लांछन लगे जाते हैं .लड़की हर जगह खुद को असुरक्षित महसूस करती हैं .अगर अपने कोचिंग संस्थान या बाजार के लिए घर से निकलती हैं तो उसे असामाजिक तत्व (सड़क छाप लफुएँ ) वहशी नजरों से देखते हैं और उनके साथ छेड़खानी करते हैं .कभी -कभी बात काफी आगे तक बढ़ जाती और लड़की के जन पर बन आती हैं . यदि कोई लड़की किसी लड़के से बात करती हैं या उसके साथ कही जाती हैं तो लोग कहते हैं कि लड़की बहक गई या अब उसकी बेटी उसके हाथ से निकल गई .लेकिन लोग यह नहीं समझ पाते कि वह लड़का उसका भाई या मित्र हो सकता हैं .व्यक्ति पर ज्यादा दबाव बनाने के परिणामस्वरूप उसका विकास अवरुद्ध हो जाता हैं .यह बात लड़कियों के मामले में भी लागू होता हैं . हमें उन्हें सही -गलत कि पहचान करना सिखाना चाहिए न कि उन पर दबाव बनाना चाहिए .. हमें उनमे सही निर्णय लेने कि क्षमता का विकास करना चाहिए .

यदि कोई लड़की कुवांरी होती हैं तो हमारा समाज उसे विभिन्न अपमानजनक शब्दों से अपमानित करता हैं ,लेकिन यदि कोई पुरुष कुंवारा होता हैं तो उसे हमारा समाज साधू, महात्मा जैसे विशिष्ट शब्दों से संबोधित करता हैं ,जो लोगो कि नकारात्मक दृष्टिकोण को दर्शाता हैं . आज फिल्मों से लेकर टेलीविजनों तथा पत्र -पत्रिकाओं ,रेडियों सभी जगह औरतों कि घिसी- पिटी विकृत छवि को प्रदर्शित किया जाता हैं .शब्दों और छवियों के जरिए पुरुष उच्चता और स्त्री को नीचता को दर्शाने वाले कार्यक्रम तैयार किए जाते हैं . विज्ञापनों में तो औरत के शरीर को एक प्रोडक्ट के रूप में प्रस्तुत किया जाता हैं . प्रख्यात लेखिका “सीमोन द बोउआर ” ने अपनी पुस्तक ‘द सेकण्ड सेक्स ” में लिखा हैं कि ‘ अब तक औरत के बारे में पुरुष ने जो कुछ भी लिखा उस पर शक किया जाना चाहिए ,क्यूँ कि लिखने वाला न्यायधीश या अपराधी दोनों ही हैं.” इसलिए सीमोन कहती हैं कि हर जगह और हर समय पुरुष ने अपनी संतुष्टि का यह कहकर प्रदर्शन किया कि वही जगत का सर्जक हैं . सीमोन प्लूटो का हवाला देते हुए कहती हैं कि प्लूटो ने ईश्वर की सबसे बड़ी कृपा यह मानी थी कि वह गुलाम नहीं था, और दूसरी कृपा यह थी कि वह पुरुष बना औरत नहीं .प्लूटो का यह कथन महिलाओ कि गिरी हुई स्थिति को दर्शाता हैं .भारत में किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार ,प्रति 24 मिनट में एक महिला यौन शोषण ,प्रति 43 मिनट में अपहरण ,प्रति 54 मिनट में बलात्कार का शिकार हो रही हैं .संयुक्त राष्ट्र संघ कि रिपोर्ट के अनुसार प्रति 8 सेकण्ड में एक महिला यौन शोषण तथा प्रति 6 मिनट में एक महिला का बलात्कार होता हैं .लिंग आधारित भेदभाव के पीछे हालाँकि सामाजिक ,आर्थिक एवं धार्मिक स्वार्थ बताए जाते हैं ,किन्तु इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता हैं कि लिंग के आधार पर भेदभाव का सबसे प्रमुख कारण पुरुष और महिलाओ की भूमिकाओं में निरंकुश विभाजन किया गया हैं .लिंग भेद तथा शोषण की प्रवृति अपने चरम रूप में उस समय प्रकट होती हैं ,जब नारी को धन या संपत्ति के रूप में भोग -विलास और उत्पादन के साधन के रूप में देखा जाता हैं .
पित्रसत्ता भी महिलाओं के लिए घातक हैं . पुरुषों द्वारा उत्तरदायी भूमिका निभाने की धारणा ने ‘महिलाओं की चिंता’ से सम्बंधित समस्या को दूसरी ओर धकेल दिया हैं .महिलाओं को दोहरी भूमिका निभानी पड़ती हैं .उन्हें व्यवसाय भी करना पड़ता हैं और घर में अपनी घरेलू भूमिका भी अदा करनी पड़ती हैं .इस तरह वह दोहरे तनाव में अपना जीवन व्यतीत कर रही हैं जिसके परिणामस्वरूप महिलाओं में ह्रदय सम्बन्धी बीमारियाँ तेजी से बढ़ रही हैं . समानता ,न्याय और मानवाधिकार (संविधान की प्रस्तावना में वर्णित ) पर आधारित एक समाज की स्थापना हेतु विकास की प्रक्रिया में महिलाओं की भागीदारी अति आवश्यक हैं .

राजनीति के क्षेत्र में भी महिलाओ के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता हैं . महिला आरक्षण विधयेक वर्षों से संसद से पास होने का इंतजार कर रहा हैं . विधानसभा और लोकसभा में महिलाओ के भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए हमारे राष्ट्रीय राजनितिक दल दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं. राज्यसभा से भारी विरोध के बाद पास महिला आरक्षण बिल को अभी लोकसभा और कम से कम 50 फीसदी विधानसभा को पार करना जरुरी हैं. यह काम कब तक होगा कहा नहीं जा सकता हैं. ?भारतीय संसद में महिला जनप्रतिनिधियों का प्रतिशत हमारे पडोसी देश पाकिस्तान ,नेपाल और इराक से भी कम हैं. इन देशो को देखा जाए तो रवांडा में महिलाओ की संख्या “लोअर हॉउस” में 56 .30 प्रतिशत हैं .आजादी के 64 साल बाद भी लोकसभा में महिलाओ की संख्या काफी कम (50 )हैं. ये आंकड़े शर्मनाक हैं. महिला सशक्तिकरण का वास्तविक उपलब्धि यह हैं की वह अपने संपूर्ण नारीत्व पर गर्व करे और अपने अन्दर आत्मविश्वास का संचार करे .उसमे अपनी शर्तों पर जीने का साहस हो . इसमे “महिला आरक्षण बिल” महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता हैं. 73 वे और 74 वे संविधान संशोधन अधिनियम 1993 में पारित कर सरकार ने पंचायतो में आरक्षण देकर एक महत्वपूर्ण कदम उठाया हैं. इस आरक्षण के फलस्वरूप पंचायतो और नगत निकायों में भी महिलाये पंचायत प्रमुख और नगर परिषद् अध्यक्षा जैसी महत्वपूर्ण पद पर पहुँच सकी हैं. संविधान के अनुच्छेद 243 (घ ) तथा 243 (न ) द्वारा आरक्षित एवं अनारक्षित वर्ग की महिलाओं हेतु 33 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की गई हैं. इस व्यवस्था से फलस्वरूप सभी प्रान्तों में ग्रामीण एवं शहरी पंचायत के सभी स्तर पर कई महिलाएँ जनप्रतिनिधि के रूप में अपनी कार्यों का निर्वाह सफलता पूर्वक कर रही हैं. संपूर्ण निर्वाचित पंचायत सदस्यों में 10 लाख महिलाए हैं जो महिला सशक्तिकरण के क्षेत्र में मिल का पत्थर साबित हो रही हैं. पंचायतो में निर्वाचित महिलाओ की संख्या विश्व में निर्वाचित महिलाओ की संख्या से भी अधिक हैं. बिहार,मध्य -प्रदेश ,हिमाचल प्रदेश सरकार ने महिलाओ को 50 प्रतिशत आरक्षण पंचायतो में दिया हैं. इन राज्यों में महिलाये ने अपने कार्यो के बदौलत नए -नए कीर्तिमान स्थापित किया हैं. बिहार में तो पंचायतो में निर्वाचित महिला जनप्रतिनिधियों का संख्या 54 प्रतिशत तक जा पहुंची हैं. पंचायतो में महिलाओ को आरक्षण देने के फलस्वरूप जो महिलाएँ जनप्रतिनिधि के रूप में चुनकर आई हैं, वे अपने काम को ईमानदारी पूर्वक अंजाम दे रही हैं इससे यह साबित होता हैं, कि महिलाएँ असहाय और निष्क्रिय नहीं हैं.भारत में पंचायतो में महिलाओ के लिए 33 प्रतिशत से बढाकर 50 प्रतिशत सीट आरक्षित कर दी गई हैं.

दिल्ली में महिलाओं के प्रति बढ़ती अपराध के खिलाफ महिलाओं ने “बेशर्मी मोर्चा” का गठन किया .मोर्चा द्वारा अपराधो को लेकर विभिन्न प्रदर्शन किया गया और रैलियाँ निकली गई .गुजरात के “सिसवा पंचायत” में पंचायत की समुचित बागडोर 18 -25 वर्ष की अविवाहित युवतीयों को सौपा गया हैं और वे बखूबी अपनी जिम्मेदारियों का कुशलता पूर्वक निर्वहन कर रही हैं .खास बात तो यह हैं कि “लोकतंत्र की प्रथम पाठशाला” की बागडोर संभल रही ये युवतियाँ अच्छी पढ़ी -लिखी (शिक्षित) हैं , जो उन्हें सही निर्णय लेने में मदद करता हैं .रांची में कॉलेज छात्राओं ने छेड़खानी के खिलाफ बिगुल फूँक दिया हैं .वहां “जूती मारूंगी “अभियान चलाया जा रहा हैं .इस अभियान की सफलता के लिए बाकायदा उन्होंने जूतियों की खरीदारी भी की हैं .वही बिहार में सरकार की “साईकिल योजना” से बच्चियों में एक इम्पावरमेंट (सशक्तिकरण ) आया हैं ,उनमे पढ़ने की ललक बढ़ी हैं .इस योजना के तहत नवम वर्ग के छात्र-छात्राओं को साईकिल खरीदने के लिए 2500 रुपए दिए जाते हैं .इस योजना से बच्चियां न केवल हाई-स्कूल तक की पढाई कर रही हैं बल्कि वे आगे कि पढाई के प्रति जिज्ञासु भी हो रही हैं और उच्च शिक्षा की ओर अपने कदम बढ़ा रही हैं. अभी हाल ही में विधालय जा रही छात्रा के साथ मनचलों ने बदसुलूकी की तो विधालय की पूरी छात्राओं ने सड़क जाम कर मनचलों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की मांग की, जो बालिका सशक्तिकरण और जागरूकता को दर्शाता हैं .
निष्कर्षतः कहा जा सकता हैं कि आज महिलाए अपने हक़ की लड़ाई लड़ रही हैं .उनमे शिक्षा का प्रसार हुआ हैं जिसके फलस्वरूप उनमे जागरूकता और आत्मविश्वास का संचार हुआ हैं जिससे वे अपने ऊपर हो रहे अन्यायों के विरुद्ध आवाज उठा रही हैं . वैसे वर्तमान परिवेश में स्थितिया बदली हैं .अब लड़कियों को भी समाज ने अपनाया हैं . हर जगह अब पिता के नाम साथ माता का नाम भी जोड़ा गया हैं .कल्पना चावला ,किरण बेदी ,रेखा दोशित,सुनीता विलियम्स ,दिव्यदर्शिनी (आई .ए.एस टॉपर ) ,स्वेता मोहंती (आई .ए .एस. सेकण्ड टॉपर ) इत्यादि अनेक उदाहरण अब सामने हैं. किसी भी राष्ट्र की परंपरा और संस्कृति राष्ट्र की महिलाओ से परिलक्षित होती हैं .महिलाए समाज की रचनात्मक शक्ति होती हैं .आने वाले कल को सुधारने के लिए हमें आज की महिला की स्थिति में सुधार लाना होगा .इसके लिए हमें रुढ़िवादी दृष्टिकोण से उबर कर एक नया विकासवादी सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाने की जरुरत हैं .
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