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विश्व महिला दिवस (8 मार्च )पर विशेष , महिला आरक्षण :एक विश्लेषण

जो कहूँगा सच कहूँगा .
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महिलाये भारत की कुल आबादी का आधा हिस्सा हैं .संभवतः राष्ट्र के विकास के कार्य में महिलाओ की भूमिका और योगदान को पूरी तरह और सही परिप्रेक्ष्य में रखकर राष्ट्र निर्माण के कार्य को समझा जा सकता हैं. समूची सभ्यता में व्यापक बदलाव के एक महत्वपूर्ण घटक के रूप में महिला सशक्तिकरण आन्दोलन 20 वी शताब्दी के आखिरी दशक का एक महत्वपूर्ण राजनितिक और सामाजिक विकास कहा जाना चाहिए. भारत जैसे देश में जहाँ लोकतान्त्रिक तरीके से काम करने की आजादी हैं या यु कहे की एक सशक्त परम्परा हैं .जनमत जीवंत हैं और आधी आबादी के कल्याण में रूचि लेने वाला एक बड़ा वर्ग विधमान हैं . महिला सशक्तिकरण की शुरुआत संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा 8 मार्च ,1975 को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस से मानी जाती हैं .फिर महिला सशक्तिकरण की पहल 1985 में महिला अंतर्राष्ट्रीय सम्मलेन नैरोबी में की गई. भारत सर्कार ने समाज में लिंग आधारित भिन्नताओ को दूर करने के लिए एक महान निति ‘महिला कल्याण नीति’1953 में अपनाई . महिला सशक्तिकरण का राष्ट्रीय उद्देश्य महिलाओ की प्रगति और उनमे आत्मविश्वास का संचार करना हैं.

महिला आरक्षण का इतिहास

सर्वप्रथम 1926 में विधानसभा में एक महिला का मनोनयन कर सदस्य बनाया गया परन्तु उसे मत देने के अधिकार से वंचित रखा गया. इसके पश्चात् 1937 में महिलाओ के लिए सीट आरक्षित कर दी गई जिसके फलस्वरूप 41 महिला उम्मीदवार चुनाव में उतरी .1938 में श्रीमती आर. बी.सुब्बाराव राज्य परिषद् में चुनी गई उसके बाद 1953 में श्री मति रेणुका राय केंद्रीय व्यवस्थापिका में प्रथम महिला सदस्य के रूप में चुनी गई . आजादी के बाद महिला आरक्षण के माध्यम से महिला सशक्तिकरण की शुरुआत सबसे पहले 1996 में संयुक्त मोर्चे की सरकार के दौरान तब हुआ जब सरकार ने इस आशय का बिल पारित करने के संकेत दिए .यह संकेत इस मुद्दे पर आम विचार -विमर्श के उद्देश्य से दिया गया . लेकिन उस समय से आज तक इस मुद्दे पर आम राय नहीं बन पा रही हैं . इसमे काफी विरोधावाश हैं. इसमे पहला सुझाव यह दिया गया की कानून में संशोधन कर पार्टियों को ही यह काम करने के लिए बाध्य कर दिया जाये की वह ही महिलाओ को 33 % आरक्षण दे . लेकिन इसमे कोई दो राय नहीं पार्टिया प्रत्यक्ष रूप से तो महिला आरक्षण की बात करती हैं मगर उनमे अंतर्विरोध बहुत हैं. यह एक मानी हुई बात हैं की महिला आरक्षण को कुछ देर तक टाला तो जा सकता हैं परन्तु इससे मुह नहीं मोड़ा जा सकता हैं.

संवैधानिक प्रावधान

संविधान का अनुच्छेद 14 से 18 में स्त्री और पुरुष को समानता का अधिकार दिया गया हैं. अनुच्छेद 15 (1 ) तथा 15 ( 2 ) में धर्म ,मूल ,वंश ,जाति,लिंग ,जन्म ,स्थान के आधार पर विभेद अमान्य हैं .इसमें महिला और पुरुष दोनों को सामान रूप से जीविका का निर्वहन हेतु पर्याप्त साधन उपलब्ध करने की चर्चा की गई हैं. लेकिन अनुच्छे 15 (3 ) कहता हैं की स्त्रियों की दयनीय स्थिति ,कुरीतियों के कारण होने वाले उत्पीडन ,बाल विवाह तथा बहु विवाह आदि के कारण शोषण की स्थिति में राज्यों में राज्यों को उनके लिए विशेष प्रबंध तथा विशेषाधिकार दिया जाना चाहिए. स्पष्टतः जहाँ भी आधी आबादी को सामाजिक ,पारिवारिक तथा स्वस्थ सम्बन्धी सुरक्षा के प्रश्न थे संविधान ने उन्हें पुर्णतः सुरक्षित किया हैं. वैसे महिला आरक्षण के मुद्दे पर सर्वसम्मति हो जाने के बावजूद भी के खास स्तर पर विरोध जारी हैं .महिलाओ के लिए आरक्षण की व्यवस्था के साथ पिछड़ी और दलित जातियों के महिलाओ के लिए उपव्यवस्था की जाये या नहीं .भारतीय जनता पार्टी ,कौंग्रेस और विभिन्न वामपंथी पार्टिया महिलाओ के लिए आरक्षण की व्यवस्था में जातीय व्यवस्था बनाने की विरोध में रही हैं परन्तु दलित और पिछड़ी जातीय के आधार पर राजनीती करने वाली पार्टिया यह भाजपा ,.कौंग्रेस पर यह आरोप लगाती हैं की ये सभी दल एक साजिश के तहत सवर्णों को सत्ता के केंद्र में रखना चाहती हैं.

संसद और विधानसभाओ में महिलाओ को आरक्षण दिया जाने के पक्ष में तर्क

1 .जब संविधान का 73 वा और 74 वा संशोधन कर के महिलाओ को पंचायतो और नगर पालिकाओ में एक तिहाई आरक्षण दे दिया जा चूका हैं तो उसका विस्तार संसद और विधानसभा स्तर पर क्यूँ नहीं हो सकता हैं
2 .प्रतिनिधित्व से लडकियों की समक्ष एक नया रोल मोडल पेश हो सकेगा और इसका सकारात्मक असर महिला सशक्तिकरण के रूप में पड़ेगा.
3 .महिलाओ की आधी आबादी के नाते निति निर्धारण में उनकी समुचित भूमिका अति आवश्यक हैं. ,मतलब महिलाओ के लिए आधी सिट आरक्षित हो.
4 .महिलाओ की संख्या संसद या विधानसभाओ में नगण्य हैं क्यूँ की कोई भी दल महिलाओ को टिकट देना नहीं चाहता हैं.
5 .पुरुष के प्रभाव के चलते राजनितिक दल चुनाव में अधिक महिला उम्मीदवार को खड़ा करना नहीं चाहते हैं .अतः आरक्षण से सभी दलो द्वारा महिला उम्मीदवारों के चुनाव के समर्थन करना सुनिश्चित हो सकेगा. .
6 .महिलाओ को निरक्षरता दर पुरुषो की तुलना में काफी अधिक हैं .अतः संसद और विधानसभाओ में आरक्षण देकर उनकी चेतना का शीघ्र विकास किया जा सकता हैं.

73 वे और 74 वे संविधान संशोधन अधिनियम 1993 में पारित कर सरकार ने पंचायतो में आरक्षण देकर एक महत्वपूर्ण कदम उठाया हैं. इस आरक्षण के फलस्वरूप पंचायतो और नगत निकायों में भी महिलाये पंचायत प्रमुख और नगर परिषद् अध्यक्षा जैसी महत्वपूर्ण पद पर पहुँच सकी हैं. संविधान के अनुच्छेद 243 (घ ) तथा 243 (न ) द्वारा आरक्षित एवम अनारक्षित वर्ग की महिलाओ हेतु 33 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की गई हैं. इस व्यवस्था से फलस्वरूप सभी प्रान्तों में ग्रामीण एवम शहरी पंचायत के सभी स्तर पर कई महिलाओ जनप्रतिनिधि के रूप में अपनी सफलता का निर्वाह सफलता पूर्वक कर रही हैं. संपूर्ण निर्वाचित पंचायत सदस्यों में 10 लाख महिलाए हैं जो महिला सशक्तिकरण के क्षेत्र में मिल का पत्थर साबित हो रही हैं. पंचायतो में निर्वाचित महिलाओ की संख्या विश्व में निर्वाचित महिलाओ की संख्या से भी अधिक हैं. बिहार,मध्य -प्रदेश ,हिमाचल प्रदेश सरकार ने महिलाओ को 50 प्रतिशत आरक्षण पंचायतो में दिया हैं. इन राज्यों में महिलाये ने अपने कार्यो के बदौलत नए -नए कीर्तिमान स्थापित किया हैं. बिहार में तो पंचायतो में निर्वाचित महिला जनप्रतिनिधियों का संख्या 54 प्रतिशत तक जा पहुंची हैं. पंचायतो में महिलाओ को आरक्षण देने के फलस्वरूप जो महिलाये जनप्रतिनिधि के रूप में चुनकर आये हैं, वे अपने काम को ईमानदारी पूर्वक अंजाम दे रही हैं इससे यह साबित होता हैं, की महिलाये असहाय और निष्क्रिय नहीं हैं.

भारत में पंचायतो में महिलाओ को 33 प्रतिशत से बढाकर 50 प्रतिशत सीट आरक्षित कर दी गई हैं .लेकिन सत्ता का मुख्या केंद्र बिंदु विधानसभा और लोकसभा में महिलाओ के भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए हमारे राष्ट्रीय राजनितिक दल दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं. राज्यसभा से भरी विरोध के बाद पास महिला आरक्षण बिल को अभी लोकसभा और कम से कम 50 फीसदी विधानसभा को पर करना जरुरी हैं. यह काम कब तक होगा कहा नहीं जा सकता हैं. ?भारतीय संसद म महिला जनप्रतिनिधियों का प्रतिशत हमारे पडोसी देश पाकिस्तान ,नेपाल और इराक से भी कम हैं. एनी देशो को देखा जाये तो रवांडा में महिलाओ की संख्या “लोअर हॉउस” में 56 .30 प्रतिशत हैं .आजादी के 62 साल बाद भी लोकसभा में महिलाओ की संख्या काफी कम (50 )हैं. ये आंकड़े शर्मनाक हैं. महिला सशक्तिकरण का वास्तविक उपलब्धि यह हैं की वह अपने संपूर्ण नारीत्व पर गर्व करे और अपने अन्दर आत्मविश्वास का संचार करे .उसमे अपनी शर्तों पर जीने का साहस हो . इसमे “महिला आरक्षण बिल” महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता हैं.

लोहिया के शब्दों में “शक्ति मौका आने पर प्रकट होती हैं और प्रकट होते- होते आगे बढाती हैं .शक्ति दबाने पर दबती चली जाती हैं ,की मानो हो ही और कभी नहीं हो रही” .भारतीय समाज में नारी को इतना दबा कर रखा गया कि उसे अपने क्षमताओ व सामर्थ्य पर विश्वास ही नहीं रहा. लोहिया ने महिलाओ कि स्थिति में सुधार एवम पुरुषवादी प्रभुत्व कि समाप्ती हेतु महिलाओ के लिए “विशेष अवसर की सिद्धांत” की मांग की.जिसमे पिछडो ,हरिजनों ,मुस्लिमो को शामिल किया गया था. और उन सबो के लिए साठ फीसदी आरक्षण की मांग की गई थी . यह अत्यंत विषाद एवम दुर्भाग्य का विषय हैं की यदि सैद्धांतिक स्तर पर आरक्षण अनुचित हैं तो सभी वर्गों के लिए होनी चाहिए .सिर्फ महिलाओ के सन्दर्भ में क्यूँ ? अन्य पिछडो के विकास में आरक्षण जरुरी हैं तो महिलाओ के क्यूँ नहीं .क्या महिलाये वंचित नहीं रही हैं.?सामाजिक न्याय के कथित पक्षधर इस बात का विरोध कर रहे हैं की इसमे “कोटे में कोटे” की पद्धति नहीं अपनी गई हैं. वे महिलाओ को अगड़े -पिछड़े में बाटने की घृणित अपराध व खतरनाक कोशिश कर रहे हैं. ताकि महिला आरक्षण पर आम राय नहीं बन पाए और वह विधेयक लोक सभा और विधानसभा में पास होने का बाट जोहता रहे.ऐसी विषम स्थिति में महिला और पुरुष को मिलकर समता और समृद्धि पर आधारित अभियान चलाना होगा .अन्यथा सशक्तिकरण का सपना बस सपना ही रह जायेगा. इस बात स्वीकार किया जाना चाहिए की कोई भी आरक्षण विभेदकारी होता हैं और इससे समानता के सिद्धांत का उल्लघंन होता हैं. और योग्यता को निम्न प्राथमिकता मिलती हैं. इस प्रकार बहुत से योग्य उम्मीदवारों में हताशा होगी . अतः किसी भी आरक्षण की विधिमान्यता की परखा इस आधार पर की जा सकती हैं की क्या यह किसी तर्कसंगत तथा प्रांसगिक मानदंड पर आधारित हैं.
लेकिन सवाल उठता हैं की क्या आरक्षण देने से आम महिलाओ की जिन्दगी में फर्क आ पायेगा? महिलाओ के लिए राजनितिक पदों पर बैठना और ऐसे पदों का उपयोग आम महिलाओ के कल्याण के लिए करना अलग बात हैं. यह मानना गलत होगा की महिलाओ के संसद में पहुचने मात्र से आम महिलाओ का भला हो जायेगा. क्यूँ की ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जिसमे महिला जनप्रतिनिधि के द्वारा ही कई ऐसे योजनाओ को बंद किया गया जो महिलाओ के कल्याण से सम्बंधित थी. यह कतई नहीं समझा जाना चाहिए की महिलाए संसद में पहुंचकर महिला से सम्बंधित कार्य में रूचि लेंगी.यहाँ यह संभावना बलवती हैं की चुनिन्दा महिलाओ को दिखावटी रूप से संसद में स्थान देकर उन्ही नीतियों का समर्थन के लिए बाध्य किया जायेगा जिसे पुरुष चाहते हैं. वे खुद से निर्णय नहीं ले सकेंगे .महिला आरक्षण के मामले में दलितों के आरक्षण के मॉडल का पालन करना गलत होगा. इस प्रयास से आम दलितों का भला नहीं होगा उलटे दलितों पर अत्याचार होगा ऐसा पहले भी हुआ हैं. दलितों को आरक्षण देने से 120 दलित संसद में पहुचे परन्तु आज भी दलितों की समस्या ज्यो की त्यों बनी हुई हैं. कारण यह हैं की किसी दलित का जनप्रतिनिधि का चुना जाना अलग बात हैं और दलित सशक्तिकरण अलग बात हैं.

निष्कर्ष —— आरक्षण से ज्यादा जरुरी हैं महिला की स्थिति को सशक्त बनाना और उन्हें आर्थिक और सामाजिक रूप से सबल बनाया जाये जिससे उनमे आत्मविशवास आये और वे अपने हक़ की लड़ाई बिना किसी के सहयोग के खुद लड़ सके .महिलाओ की शिक्षा ,सुरक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए . आरक्षण सच्ची लोकतान्त्रिक प्रक्रिया और महिलाओ की भागीदारी का विकल्प नहीं हो सकता हैं ,परन्तु इस दिशा में यह एक सही कदम हैं.

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