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प्रेम अलौकिक हैं .प्रेम शाश्वत हैं .प्रेम किसी को भी हो सकता हैं. यह जाति ,धर्म ,सरहद ,संस्कृति को नहीं मानता हैं. यह जल की भांति रंगहीन हैं. प्रेम अलौकिक हैं मगर यह तो इसी लोक में घटित होता हैं और अलौकिक का शाब्दिक अर्थ इस लोक से परे होना होता हैं. सभी ने अपने -अपने ढंग से प्रेम की व्याख्या की हैं . प्रेम को किसी भी परिभाषा में बांधना असंभव हैं .इसे शब्दों के गांठो में बांधना मुश्किल हैं.यह मित्र ,गुरु-शिष्य ,भाई- बहन ,माता -पिता संग पुत्र-पुत्री ,पति -पत्नी आदि जगह होता हैं. हाँ प्रत्येक स्थान पर इसकी प्रकृति अलग -अलग होती हैं .यह अचानक आता हैं और सब कुछ बदल देता हैं .यह सर्वव्यापी हैं .यह बहुआयामी हैं. कहा भी गया हैं LOVE IS BLIND एनी जैदी के शब्दों में,
‘प्रेम करीब आना चाहे
बिलकुल करीब
तो गहरी साँस बनाकर थाम लो उसे
तब तक ,जब तक टूट न जाओ’
इसे हम प्यार ,मोहब्बत ,इश्क ,वफ़ा कहते हैं .प्रेम सुरक्षा हैं .प्रेम वासना हैं .कहते हैं प्रेम की गहराई में कही न कही शारीरिक घनिष्टता छिपी होती हैं .प्रेम दो आत्माओ का मिलन होता हैं. प्रेम हैं तो जीवन हैं .प्रेम एक बहता हुआ दरिया हैं .प्रेम की अनिभूति अपने आप में परिपूर्ण और बेजोड़ हैं .प्रेम शक्ति हैं .प्रेम का स्वरुप भी गजब हैं. कही यह ढकी हैं तो कही यह निर्लज्ज होकर खड़ा हो जाता हैं और समाज को चुनौती देता हैं. साहित्य में प्रेम अन्तः:सलिला की भान्ति जीवन सिचता हैं तो कही यह जीवन को उजाड़ कर नाश कर देता हैं .कही यह बच्चो सा मासूम निश्छल हैं तो कही छल कपट से भरपूर .
युगों -युगों से साहित्य में प्रेम के अलग -अलग प्रकार के स्वरुप हैं .कोई इसी रोमांटिक भाव में व्यक्त करता हैं तो किसी के यहाँ यह आराम ,सुख-सुविधाओ और संरक्षण के एवज में जिन्दगी को उसकी सारी आशाओ आकांक्षाओ को गिरवी रखे हुए हैं . कही यह पूर्णता को प्राप्त करता हैं तो कही यह शुरू में या बीच में ही दम तोड़ देता हैं . बिना प्रेम के कोई भी रचना असंभव हैं. उर्दू के महाकवि मीर के अनुसार
‘इश्क मीर एक भारी पत्थर हैं
कब वो तुझ नातवां से उठता हैं ‘
कबीर के शब्दों में
‘प्रेम न बाड़ी उपजी प्रेम न हाट बिकाय
रजा परजा जेहि रुचे सिर हैं सोई
लै जाय!’
जिगर मुरादाबादी के शब्दों में
‘यह इश्क नहीं आसां इतना ही समझ ली जै
इक आग का दरिया हैं और डूब के जाना हैं
कितना कठिन
कितना चुनौती भरा !’
वास्तव में इश्क आसां नहीं हैं (प्रेमी -प्रेमिका के संदर्भ में ) यह आग का दरिया हैं इससे बाहर निकलना मुश्किल हैं .प्रेम स्वार्थ हैं कहता हैं जो हमारा हैं हमारा होकर ही रहे जीवन भर . प्रेम सिखलाता हैं किसी पर हक़ समझना.प्रेम के पलो में नीरस से नीरस व्यक्ति भी भावुक हो उठता हैं .प्रेम मौन रहता हैं यह सर चढ़कर बोले मगर मौनीवस्था में .माना की प्रेम स्वार्थ हैं मगर स्वार्थ इतना हावी न हो जाय की प्रेम बंधन लगने लगे. पवित्र प्रेम से प्रेरित शारीरिक सम्बन्ध मन की प्रसन्नता और आत्मिक आनंद का विकास करते हैं .प्रेम केवल ज्वाला से ज्वाला का मिलन नहीं हैं अपितु यह आत्मा की पुकार हैं .प्रेम कोई वस्तु नहीं जिस पर हमारा अधिकार हो .प्रेम का अनुभव मात्र पुस्तकों के अध्ययन या दुसरो के अनुभव को जानकर नहीं किया जा सकता हैं .यह एक निजी अनुभव हैं .प्रेम व्यक्ति ही नहीं पशुओ में भी विधमान हैं .
गौतम बुद्ध के शब्दों में,
प्रेम ही जीवन हैं .
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