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भारतीय राजनीति का बदलता स्वरुप

जो कहूँगा सच कहूँगा .
जो कहूँगा सच कहूँगा .
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राजनितिक दल लोकतंत्र के प्राण माने जाते हैं .दलों के बिना लोकतंत्र की कल्पना नहीं की जा सकती हैं .स्वस्थ लोकतंत्र के लिए स्वस्थ चरित्र वाले राजनितिक दल का होना आवश्यक हैं .लेकीन वर्तमान परिस्थिति पर नजर डाले तो यह बिल्कुल भिन्न नजर आता हैं . राजनितिक दलों का गठन सिद्धांत पर आधारित होता हैं लेकिन वे जल्द ही व्यक्तिवाद के ओर मुड जाते हैं .आज भारतीय राजनीति में परिवारवाद नामक संस्कृति हावी हो रही हैं . आज आप पुरे भारत के किसी राज्य में देख ले सभी में परिवारवाद जोरो पर चल रही हैं .नेता के जितने भी सगे सम्बन्धी हैं सभी नेता बनने को आतुर दिखाई पड़ते हैं .और आम कार्यकर्ता झंडे लेकर दौड़ते ही रह जाते हैं .;

आज हमारे राजनितिक व्यवस्था में अपराधिक चरित्र वाले नेताओ का बोलवाला हैं .यु कहे की आज कानून तोडना वाले ही कानून बनाने वाले बने हैं.हमारे वर्तमान राजनितिक नेताओ का चरित्र इतना भ्रष्ट हैं हैं की वे अपने निजी स्वार्थो के लिए राष्ट्र हित की अनदेखी कर जाते हैं .पद ,लोलुपता .सत्ता से निकटता की चलते वे यह भूल जाते हैं की वह जनता के प्रतिनिधि हैं .और उनके द्वारा किये गए आचरण से पूरा समाज प्रभावित होता हैं. आज देश की संसद से लेकर विधानसभाओ तक अनगिनत ऐसे लोग विराजमान हैं जिनका पिछला रिकॉर्ड आपराधिक हैं कुछ पर तो दर्जनों संगीन मामले .लंबित हैं .ऐसा नहीं हैं की सिर्फ आम विधायक व् सांसद ही इस श्रेणी में हैं कई मुख्यमंत्री भी इस श्रेणी में शामिल हैं.
महात्मा गाँधी का विचार था की धर्म और राजनीति एक ही सूत्र में बंधे होने चाहिए. इसके पीछे उनकी इच्छा राजनीति को भ्रष्टाचार से दूर रखने की थी .वास्तव में धर्म वह संस्था हैं जो मनुष्य को गलत और अनैतिक आचरण करने से रोकती हैं.लेकिन आर्थिक विकासो ने भारतीय समाज को भौतिकवादी बना दिया हैं. राजनितिक खीचतान, जातीय उन्माद ,साम्प्रदायिकता ,क्षेत्रीयता ,बाहरी शक्तियों की हस्तक्षेप ने भारतीय राजनीति में सामाजिक भावना को नष्ट कर दिया .परिणामतः भारतीय राजनीति की पवित्रता नष्ट होने लगी ..हमे जनप्रतिनिधि अपने स्वार्थ में वशीभूत होते गए. आज भ्रष्टाचार एवम अनैतिक आचरण राष्ट्रीय आचरण बन गए हैं .

भारतीय राजनीतिज्ञों के इस स्वार्थपरक नीति के कारण भारतीय नौकरशाही का भी नैतिक पतन हुआ. हैं .आजादी के शुरू के वर्षो में यधपि स्थति ऐसी नहीं थी ..1975 में आपातकाल के दौरान नौकरशाही पूरी तरह से राजनीतिज्ञों के हाथो का खिलौना बन गई थी .पंडित जवाहर लाल नेहरू के काल में नौकरशाही पर दवाब के बहुत ही कम उदाहरण मिलते हैं
सरदार बल्लभ भाई पटेल नौकरशाही को आदर की दृष्टि से देखा करते थे. 1949 में संविधान सभा में उन्होंने कहा था
मैंने उनके (नौकरशाह) के साथ कठिन समय में काम किया हैं.–
किन्तु उन्हें हटा देने के बाद मुझे पुरे देश में अव्यवस्था के सिवा कुछ नहीं दिखेगा” सरदार पटेल नौकरशाही पर अनावश्यक दवाब के विरुद्ध थे. आज हमरे पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियो का लगातार तबादला कर दिया जाता हैं. एक सड़क छाप नेता एक अधिकारी को वर्दी उतरवा लेने की धमकी देता हैं. सरदार पटेल नौकरशाही को एक स्वतन्त्र और अधिकार युक्त निकाय के रूप में देखना पसंद करते थे. किन्तु कालांतर में ऐसे उदारवादी नेताओ का अभाव हुआ और नौकरशाही प्रभावहीन ही नहीं हुई बल्कि स्वयं भी भ्रष्टाचार के आकंठ में डूबी हुई. आज यदि किसी भ्रष्टाचार के मामले में अधिकारी और नेता पकडे जाते हैं तो सजा सिर्फ अधिकारियो को दी जाती हैं .ऐसे ढेरो उदाहरण भरे- पड़े हैं.

अंत में अधिकारों के प्रति आदर, कर्तव्यों के प्रति श्रद्धा की कमी ने आज हमारे लोकतंत्र को इस विकत स्थिति में खड़ा कर दिया हैं, हमें इस स्थिति से उबरना होगा.
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